दर्शन जैसे गूढ़ विषय पर सत्रह मौलिक और वृहद ग्रंथों के रचनाकार डॉ विद्यासागर उपाध्याय
(समीक्षा)
डॉ रिंकी पाठक आलोचक/ राजीव शंकर चतुर्वेदी
पूर्वांचल राज्य ब्यूरो
बलिया। शारीरिक आयु 39 साल परन्तु मानसिक वय 100 वर्ष से भी अधिक ..जी हाँ! डॉ. विद्यासागर उपाध्याय द्वारा लिखे गए ये 17 ग्रंथ इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। संसार के किसी भी विषय से पीएच. डी. की जाय तो वह डॉक्टरेट की उपाधि फिलॉस्फी से ही सम्बद्ध हो जाती है। दर्शन है ही ऐसा विषय। जहां से विज्ञान का अंत होता है वहां से दर्शन प्रारंभ होता है। किसी भी धर्म के तीन भाग हैं- कथा, कर्मकाण्ड और दर्शन। भारत वर्ष अपने दर्शन के कारण ही विश्व गुरु रहा। हमारी जन्मभूमि ‘बलिया’ जनपद जहां कपूरी गांव सर्वाधिक प्राचीन सांख्य दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल की तपोभूमि रही वहाँ दुर्भाग्य से दर्शन के क्षेत्र में कोई विशिष्ट कार्य नहीं हुआ। मैं धन्यवाद देना चाहती हूँ अपने ही परिवार के डॉ. विद्यासागर जी को जिन्होंने दर्शन शास्त्र के एक दो नहीं बल्कि पूरे सत्रह ग्रंथों का प्रणयन किया है। इतनी कम उम्र में इतनी बड़ी संख्या में पुस्तकों का लेखन आपके विशद एवं गूढ़ ज्ञान तथा पांडित्य को प्रदर्शित करता है।भारतीय दर्शन का प्रतिपाद्य है - मै कौन हूँ? सृष्टि की उत्पत्ति का कारण क्या है? जन्म से पहले हम क्या थे? मृत्यु के बाद क्या होता है? परम सत्य क्या है? सर्वोच्च सत्ता का स्वरूप कैसा है? इत्यादि......इन समस्त प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने हेतु मानवता सदैव से व्यग्र रही है। इन समस्त प्रश्नों का तार्किक, वैज्ञानिक और प्रामाणिक ढंग से उत्तर डॉ. विद्यासागर उपाध्याय ने इन ग्रंथों के माध्यम से दिया है। कुछ ग्रंथ लगभग 150 पृष्ठ के हैं तो कुछ लगभग 800 पृष्ठों के। कुछ ग्रंथों की कीमत एक हजार रुपए से भी अधिक है।लेकिन इन ग्रंथों में लगने वाले श्रम, संसाधन, समय और इनसे प्राप्त होने वाले मौलिक ज्ञान की तुलना में इनका लागत मूल्य कुछ भी नहीं है। जैसा की हम जानते हैं कि दर्शन शास्त्र जैसे गूढ़ विषय के पाठक और लेखक बहुत कम हैं। परन्तु जो भी हैं बहुत परिपक्व हैं। मैने स्वयं देखा है - जब दर्शन जैसे गूढ़ विषय के किसी भी विषय पर आदरणीय उपाध्याय जी का व्याख्यान होता है तो लोग कुर्सियों से चिपक जाते है, ‘पिन ड्रॉप साइलेंट’ हो जाता है। डेढ़-दो घंटे कब बीत गए, पता ही नहीं चलता। इसके बावजूद प्रत्येक व्याख्यान में विद्वत समाज द्वारा उन के व्याख्यान की समय सीमा बढ़ाए जाने की मांग अवश्य होती ही है।
कहा गया है-विद्वत्वं च नृपत्वं च न एव तुल्ये कदाच न्। स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥"
इस उक्ति को चरितार्थ करते हुए आपने शास्त्रार्थ की विश्वप्रसिद्ध भूमि काशी, उज्जैन और जनकपुर (नेपाल) तीनों स्थानों पर शास्त्रार्थ में प्रतिभाग करते हुए अपने मत को प्रतिष्ठित किया है। समरसता प्रमुख-मौन तीर्थ पीठ उज्जैन (मध्य प्रदेश), राष्ट्रीय पार्षद- शंकराचार्य परिषद, मुख्यालय बंगलौर (कर्नाटक), अन्तर्राष्ट्रीय प्रवक्ता- ब्राह्मण समाज विद्वत परिषद मुख्यालय मियामी फ्लोरिडा (संयुक्त राज्य अमेरिका) आदि अनेक संस्थानों से जुड़े रहते हुए भारत ही नहीं अपितु विश्व स्तर पर विद्वत मंडली को आप ने अपने व्याख्यान से मंत्रमुग्ध किया है। एक बहुत बड़ा वर्ग है जो आपको ‘फॉलो’ करता है जिसमें विश्वविद्यालयी छात्रों की संख्या कदाचित सर्वाधिक है और इसका कारण है आपका वह व्याख्यान जो उनके विश्वविद्यालयों में हुआ। आप राधा कृष्ण स्मृति न्यास जैसी प्रसिद्ध स्वयंसेवी संस्था के संस्थापक हैं। आप के साथ स्वयंसेवकों की एक पूरी ‘टीम’ है जो सदैव दूसरों के हित के लिए तत्पर रहती है । कहा गया है-शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणां तथा। ऊहापोहोऽर्थ विज्ञानं तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः ॥"
अर्थात्-: शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, चिंतन, उहापोह, अर्थविज्ञान, और तत्त्वज्ञान – ये बुद्धि के गुण हैं। इस घोर ‘डिजिटलाइजेशन’ के युग में जहाँ प्रतिद्वंदिता चरम पर है।जब बोद्धारो मत्सरग्रस्ता: प्रभव: स्मयदूषिता: अबोधोपहाताश्चान्ये .........(विद्वान द्वेषयुक्त हो चुके हैं, प्रभावशाली लोग घमण्डी हो चुके हैं तथा शेष अन्य अज्ञानी हैं....) माहौल बना हुआ इस मत्सर और मोह युक्त वातावरण में जब हम आपकी तरफ दृष्टि केन्द्रित करते हैं तो परमानंद का अनुभव करते हैं कि चलो! ये दुर्गुण आपके समीप अभी नहीं आ पाए हैं। हाँ! औरों को आपकी प्रभुता, विद्वता और बौद्धिक सामर्थ्य से खतरा और भय अवश्य अनुभव होता रहा है।इस बात की मैं हमेशा से साक्षी रहीं हूँ। खैर गोस्वामी जी ने कहा है ‘कुमति सुमति सबके उर रहहि....तो जिनकीं जो जाने। उसमान ने कहा है कि “जाके बुद्धि होहि अधिकाई,आनि कथा एक कहे बनाई..." जिनको लगता है वो बेहतर हैं, वो सोचते रहें। दुनिया में कुछ चीजें ‘सिंगल पीस’ ही होती हैं। अतः मुझे नहीं लगता की तुलनात्मक अध्ययन जैसी कोई यहाँ सम्भावना है।उत्तर प्रदेश के पूरब से निकलने वाला सूर्य एक दिन निखिल विश्व को प्रकाशित करे, तथा ये समस्त ग्रंथ मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त करें ,यही द्वेषहीन पूर्वाग्रहरहित और निश्छल कलमकारों की कामना है।आपकी विद्वता को बारम्बार नमन।
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