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माँ की दुलारी और पिता की राजकुमारी होते हुए अपनी होकर भी पराई क्यों होती है बेटियां,



राजीव शंकर चतुर्वेदी/ सुशांत पांडेय

पूर्वांचल राज्य ब्यूरो 

बलिया। बचपन में जब एक बेटी जन्म लेती है, तो उसका घर गूंज उठता है उस मासूम सी किलकारियों से। माँ-बाप की खुशियों का ठिकाना नहीं होता है। मां -बाप कीआँखों में सपने सजने लगते हैं—उसे कलेजे से लगाकर रखने के लाड़ प्यार से पालने के, उसे पढ़ाने के, संवारने के, उसकी मुस्कान में अपनी दुनिया ढूँढने के। वह माँ की दुलारी और पिता की राजकुमारी होती है। पर समय के साथ जैसे-जैसे वह बड़ी होती है, समाज की एक पुरानी सोच उसके आगे दीवार बनकर खड़ी हो जाती है। बेटियाँ पराई होती हैं।"यह सवाल हर उस दिल को चुभता है जिसने कभी बेटी को अपने आँगन में हँसते-खेलते देखा है। आख़िर क्यों एक दिन बेटी को यह कहकर विदा कर दिया जाता है कि अब यह घर तेरा नहीं रहा? क्या उसके प्यार, त्याग और स्नेह में कोई कमी रह गई? नहीं। कमी किसी बेटी में नहीं होती, कमी समाज की उस सोच में होती है जो बेटियों को "पराया धन" समझती है। मां -बाप अपने कलेजे के टुकड़े को अपनी जान से अधिक मानते हैं और उसे बड़ा करते हैं, लाड़ प्यार से पली वो कली जब बड़ी होती है तो मां का सहारा बनतीं है घर के कामों में मदद करने लगती है, पुरे परिवार की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेकर ख़ुशी ख़ुशी सबका ख्याल रखती है आजकल तो बेटीयां हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है पढ़ लिखकर अपने मां -बाप के साथ परिवार का नाम रोशन कर रही है लेकिन इसमें उसके माता-पिता का साथ आवश्यक होता है। धीरे धीरे खेलते हुए बेटियां कब बड़ी हो जाती है पता नहीं चलता। फिर मां -बाप के सामने समाज का सबसे बड़ा सवाल सामने आ जाता है कि बेटी का विवाह कब होगा और इसी सवाल के जवाब के लिए पिता के सबसे बड़ी जिम्मेदारी आ जाती है बेटी की शादी।

और फिर धीरे धीरे शादी के लिए रिश्ते खोजा जाता है और फिर नियतिनुसार एक पराये लड़के और उस परिवार से एक नया रिश्ता जोड़ा जाता है।लड़का लड़की के पसंद होने के बाद दहेज कुप्रथा की प्रक्रिया शुरू होती है। सबकुछ तय होने के शादी का दिन निश्चित किया जाता है और शादी की तैयारियां शुरू होती है धीरे धीरे वो दिन भी आता है जब गाजे बाजे के साथ दूल्हे बारातियों के साथ बेटी के बाप के यहां दस्तक देते हैं घर में ख़ुशी का माहौल रहता सारे रिश्तेदार और दोस्त - मित्र इक्कठा हुए रहते हैं। जब बारात दरवाजे पर द्वारपूजा के लिए आती है तो गांव घर महिलाएं गीत गाने लगती है "आपन खोरीया बहार ऐ शशिभूषण पापा आवा तारे दूल्हा दमाद हो"पुरे विधि विधान से द्वारपूजा होता है फिर आजकल के फैसन के अनुसार जयमाल होता है और धीरे धीरे सारी रस्में निभाई जाती है। मां -बाप का कलेजा तब फटता है जब गीत के साथ कन्यादान रस्म शुरू होता है। "चौका बइठल बेटी रोयेली, पापा पापा पुकारेली, पापा पापा पुकारेली, पापा पापा पुकारेली। कथिये पिड़हिया पापा हो बइठल बानी, हमरा के बइठइले बानी, हमरा के बइठइले बानी, हमरा के बइठइले बानी ।"...मां -बाप की गोद में बैठी बेटी का कन्यादान हो रहा है और मां -बाप अपने कलेजे के टुकड़े को किसी और के हाथ में सौंप देते हैं शादी की रस्में धीरे धीरे पुरे होते हैं और समय आता है विदाई का जब बेटी को उस घर को छोड़कर जाना पड़ता है जहां उसका जन्म हुआ रहता है, जहां पली बढ़ी,जिस आंगन में खेलकर बड़ी हो, उस मां -बाप और भाई बहनों को छोड़कर जाना पड़ता जो उसे अपने कलेजे से लगाए रहते हैं हमेशा हंसने वाली बेटी सबको रूलाकर किसी और घर को संवारने के लिए चली जाती और परंपरा अनुसार बेटी पराई हो जाती है!


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